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सूख जाते हैं अश्रु

नादान युवा उम्र चौंतिस,

प्रतिभा का विलक्षण,

शोहरत के शिखर पर,

मुस्कान थी अच्क्षुण,

बरगद के छांव तले,

प्रस्फुटित कोपलों का अंत,

वंश का दंश नासूर है,

बिरले होते हैं संत,

जब जिंदगी की तनहाई में,

आलिंगन हो मौत से,

तब रोती है आत्मा,

सूख जाते हैं अश्रु।

 

अतिक्रमण सरहद का,

समझौतों की दुहाई,

निहत्थे सैन्य बदन पर,

कीलों से गुदाई,

राजनीतिक दिवालियापन से,

आहत जन मानस,

तिरंगे में लिपटे शव को,

इक्कीस तोपों का ढांढस,

जब क्रंदित हो चुड़ियां,

दारुण रुदन वीर वधू का,

 

तब रोती है आत्मा,

सूख जाते हैं अश्रु ।

प्रगति का पहिया,

शहरों में बेबस,

भजन भूख की,

सरगम थी कर्कश,

बेंत पीठ की, पांव में छाले

गज दो की दूरी बांधी,

बहस, विज्ञापन, वादे झूठे,

पेट था खाली, रोटी आधी,

जब रोटी की राह में,

बिखरती हैं रोटियां,

तब रोती है आत्मा,

सूख जाते हैं अश्रु ।

 

पुत्र मोह धृतराष्ट्र का,

भारी ख़ून पसीने पर,

गांधारी, बांधी है पट्टी,

जाति, सूचक योग्यता दर,

बुद्धिजीवी हैं स्वार्थ में अंधे,

संख्या बल पौरुष समाज,

भूखे मरते लोग देश में,

भंडारण में सड़ता अनाज,

जब चिकित्सक पर,

बरसते हों पत्थर,

तब रोती है आत्मा,

सूख जाते हैं अश्रु।

 

पासे धूर्त शकुनि फेंका,

उलझा धर्मराज का धर्म,

हरण चीर का भरी सभा में,

मर्दानी नारी का मर्म,

काम, क्रोध, मद, लोभ महारथी,

गढ़ते हैं नित चक्रव्यूह,

छल, प्रपंच परे समझ के,

फंसकर मरता अभिमन्यु,

जब दुशाला ओढ़ सभ्यता के,

गर्भ में देवी मरती है,

तब रोती है आत्मा,

सूख जाते हैं अश्रु।

 


Image by Free-Photos from Pixabay

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This Post Has 3 Comments

  1. Prakhar

    Nice??

  2. Neelesh shrivastava

    बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी और मार्मिक रचना ।
    बहुत अच्छा लिखते हैं पद्माकरजी।

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