बिखरी पड़ी थी रोटियां
घर से दूर चल दिया,
काम की तलाश में।
मेहनत के सहारे ,
जिंदगी की आस में ।
राजनीति का था मैं प्यादा,
सज रहीं थी गोटियां ।
भूख थी दो जून की,
पक रही थी रोटियां ।
बीमारी का हल्ला हुआ,
सामाजिक दूरी राह में ।
प्रवासी का तमगा पहन,
मेरे प्यारे देश में ।
भूख से मरने न देंगे,
उछल रही थी चोटियां ।
दिहाड़ी मिलती रोज तब,
सिंक रही थी रोटियां ।
जनता ने कर्फ्यू लगाया,
जोर से थाली बजाया ।
ऐलान हुआ तालाबंदी का,
मैंने अपना पेट दिखाया ।
विकास में मेरा भी हिस्सा,
पड़ रही थी छोटियां ।
भीख मुझको नहीं था लेना,
बंट रही थी रोटियां ।
कोई कहता घर चलो तुम,
योजनाएं खूब हैं ।
ख्याल तुम्हारा हम रखेंगे,
वोट के हकदार हैं ।
गुरबत थी तकदीर में,
राह में थी रोटियां ।
मौत की वो रेल आई,
बिखरी पड़ी थी बोटियां।
बहस भी लंबी चली,
कसूर भी मेरा ही था ।
पांव अपने चल दिया,
गांव का जूनून था ।
रहनुमाओं की संवेदना,
चल रही थी गोटियां।
लाश थी मजदूर की,
बिखरी पड़ी थी रोटियां।
बिखरी पड़ी थी रोटियां।
इस कृति को सुनने के लिए https://youtu.be/aotWXywbKFU पर आयें।
pic credit: https://pixabay.com/