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गुरुपद

बांचता हूं चेहरा नादान,
खिलती सुनहरी मुस्कान,
डर के पार विजय का संदेश,
क़लम से विश्वास युक्त चिंतन,
थाप देकर सकुचाई माटी,
करती नव आकृति सृजन,
नवाक्षर के ककहरे में,
नवाचार से प्राकृतिक स्पंदन,
इल्म और तालीम के मझधार में,
इबादत की इबारत से संस्कार जनन,
ज्वलन मेरी नियति है,
उजियारे का करता हूं मनन,
जी हां मैं शिक्षक हूं,
गुरु पद का करता हूं जतन ।
गढ़ता हूं संघर्ष जिंदगानी का,
तुतलाती बोली का अल्हड़ स्पर्श,
नवनिहालों की उलझी जिज्ञासा,
सुलझे जवाब का आदर्श,
धुंधलाती पारखी नजर,
हीरे का हुनर,चश्मे का तरकश,
भूल जाता हूं गम ज़माने के,
ध्वनि चिल्लपों की कर्कश,
संजोता हूं दिव्य स्वप्न हज़ार,
खेल खेल में जीवन मूल्य सहर्ष,
टूटकर बिखरना मेरी फितरत,
करता हूं नित नये संघर्ष,
जी हां मैं शिक्षक हूं,
गुरु पद मेरा प्रादर्श ।
बिखेरता हूं मूल्यों की लौ,
देखता नित सामाजिक दर्पण,
परखता समाज क्षण क्षण,
पल पल श्वासों का तर्पण,
होनहार कौतूहल से रोमांचित मन,
सदाचार का सर्वदा समर्पण,
कलियों की महक से पुष्पित उपवन,
बगिया की माली का कर्पण,
अभ्यास के परिश्रम में निहित,
अतीत की डोरी का घर्षण,
हिचकोले खाती जीवन की नैया,
खेवनहार का आकर्षण,
जी हां मैं शिक्षक हूं,
गुरु पद में सर्वस्व अर्पण ।
इशारा करता हूं मछली की आंख में,
बेधता अर्जुन का तीर,
भेद शब्द नहीं शब्दकोष में,
छलकता एकलव्य के नयन से नीर,
उकेरता हूं आकृति नव प्रभात की,
अंधेरी निशा का चिराग वीर,
हौसलों का हुनर, पंखों में समाहित,
चातक की उड़ान, वर्षा का क्षीर,
सिसकता हूं, देख जहरीले फफोले,
कुरीतियो़ का समाजिक गीर,
जी हां मैं शिक्षक हूं,
गुरु चरण में समाया पीर ।
वशिष्ठ, विस्वमित्र रज तत्व में
मर्यादा पुरुषोत्तम राम,
सांदिपनी गुरु, चक्र सुदर्शन,
धर्म पताका चारों धाम,
भाई बहिन, शिकागो में उद्धृत,
विवेकानंद का निष्काम,
फकीरी के ये आदर्श मेरे,
देवत्व से मुझे नहीं विश्राम,
संकल्प की कसौटी में खरा,
निहारता हूं समाजिक शाम,
चिहुकता हूं फुदकती चिरैया से,
चीर रक्षण का सहकाम,
जी हां मैं शिक्षक हूं,
गोविन्द चखे गुरु पद का जाम ।
      ।। श्री गुरुवे नमः।।

Image by Sasin Tipchai from Pixabay

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This Post Has One Comment

  1. Ishanya Krishnan

    अति सुंदर

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