कहां से शुरू करता,
उसे ….
उस रफ्तार से भागते शहर से ?
जहां शायद कोई सो न सका हो;
या किसी वीरान सी उजाड़ बस्ती से ?
जहां उसे अपनी परछाइयां खोजनी पड़े,
जिसके आगे कभी आईना ही ना रहा हो,
अपने अस्तित्व के मूल्यांकन का
उसकी कल्पनाओं का,
मेरी भावनाओं का ।
कभी सोचने पर मजबूर रहा हो
पर साथ रहा हो उसका ‘आलस्य’ ।
जैसे कभी पूस कि किसी सुबह
अधखिली कली पर बरसी ओस
ऊपर के पेड़ पर ठहरी किसी पत्ते में,
रात बिताती हो और
हवा ………………… ढकेलती
उसे जगाती, रफ्तार का ऐलान करती
पर,
वो बूंद उस कली की पंखुड़ियों को
चूमने का जज़्बा लिए, प्यार सँजोए
दो पंखुड़ियों को झुकाती, उसे जगाती
और खिलने को कहती,
पर,
एक आलस्य लिए ………….. गिरती हुई।
या कभी बैसाख की धूप में,
गर्मी का सीना चीरते हुए
चलता अंधड़, किसी
बौराए हुए आम की डाली पे लगकर झूमते
बोर को कहता हो, उठो ! बरसो
रस के साथ,
और प्यास बुझाओ इस प्यासी
अलसाई हुई धरती की ।
नहीं तो किसी सावन की रात में
बरसी हुई बूंदों के बाद,
निकले हुए प्रभात की किरण
अटकती हो-मिलती हो-ठहरती हो
किसी नौयौवना के मधुयामिनी की
दूसरी सुबह में, उसके कपोलों की
रक्तिम आभा जैसी
उसके सिकुड़े हुए वसन के मानिन्द
उलझे हुए केशों के साथ,
बिखरी हुई माथे की बिंदी के साथ
खुली हुई पायल के जैसे,
या मसले हुए बासी फूलों सी
अलमस्त-लहरती हुई-अंगड़ाई लेने को उठी
उसकी बांहों के या ऐंठे हुए और
अलसाये हुए उसके यौवन के साथ ।
काश शुरू कर सकता कहीं से
आच्छादित चांदनी से ही सही
या रात के अंधेरे से
पर साथ आता है अपने यौवन का
एक एहसास…
‘आलस्य’ ।
………..such allusions…each imagery opens the poet’s voice…???
Thanks dear,
For your trimendus line of appreciation.
Very nice
So nice of you kavita ji, thanks for the comment.
धन्यवाद मित्र! आप सभी का प्रेम लेखनी पर विराजमान है,जो लिखते समय निकलता है।
कमाल की लेखनी हैं मित्र बहुत बहुत अच्छी रचना
Beautiful
Thanks