कुलदीपक की बन मैं बाती,
लौ से रौशन चमन हमारा;
जन्म मुझे दो मैया मोरी,
कण कण में फैले उजियारा।
मुस्कान सुनहरी,चक्षु हठीले,
कभी न होगा नीर नयन में;
चमक देख इतराओगे तुम,
इठलाऊंगी घर आंगन में।
कदम उठें,चढ़ विद्या की सीढ़ी,
राह रुके ना बोलो दादी;
फुदक-फुदक कर पंख पसारुं,
न पंख कुतरने सोई खादी।
लक्ष्य नहीं है कोई ऐसा,
भेदन मैं न कर पाऊंगी;
नवरात्रों की कहते दुर्गा,
कन्याभोजन में आउंगी।
थककर बोझिल पिता हों मेरे,
समझाऊंगी, कहते नानी;
लाठी बनूं बुढ़ापे का मैं,
बिटिया मेरी बड़ी सयानी।
हाथ बटाउं संग तुम्हारे,
लाज, हया का आंचल मेरा;
अंसुवन सुखे, नया है जीवन,
छोड़ चलूं गलियां चौबारा।
प्रस्फुटित है प्रेम की धारा,
सहनशील बरगद का सपना;
प्राकृतिक हक की राग अलापूं,
आंख दिखाता कोई अपना।
त्याग, तपस्या संयम गहना,
असुर मिलें तो बनूंगी कारी;
अंगारे है,मोह समर्पण,
तीली दिया सलाई नारी।
चीरहरण बरगद के नीचे,
लाज बचाये थे त्रिपुरारी;
कान्हा कोई राह में मेरे,
कुत्सित विचार वासना भारी।
शिकवा गिला नहीं है जग से,
दिल छोटा है छोटी आशा;
दोनों कुल का जतन करूं मैं,
जन्म मेरा मेरी अभिलाषा।
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