अकेला हूँ मैं
वो मृगतृष्णा का मंज़र
वह जेहन में भरी आस
एक नितांत अनबुझी सी प्यास क्योंकि …
अकेला हूँ मैं ।
बोलता हूँ, सुनता हूँ,
टाल जाता हूँ
निरंतर जीतने की चाह में
हारता जा रहा हूँ
लुट रहा प्रतिपल, लुटा रहा हूँ मैं क्योंकि …
अकेला हूँ मैं ।
जिंदगी क्या है, जाना ही नहीं
मौत कैसी है, सोचा ही नहीं
मंजिल कहां है, क्या मालूम
सर्दी – बारिश – धूप क्या मालूम
गुजर रहा हूँ, गुजारे जा रहा हूँ क्योंकि…
अकेला हूँ मैं ।
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Very nice
सहृदय धन्यवाद,
रचना के हृदय को समझने के लिए।
Jivan ki pida ko vyakt karti sunder rachna